बुद्धिमान लोगों की खोज है होली

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holi huddangभारत में जितने भी त्योहार हैं, उन सबके पीछे कोई न कोई पौराणिक कथा है, क्योंकि प्राचीन काल में समाज पर धर्म की बहुत ज्यादा पकड़ थी। अत: सामाजिक उत्सवों को धर्म के साथ पिरोया जाता था, ताकि सभी लोग उन उत्सवों-त्योहारों में शामिल हो सकें। वैसे होली हिन्दुस्तान की गहरी प्रज्ञा से उपजा हुआ त्योहार है। इसमें पुराण कथा तो एक आवरण है, जिसमें लपेटकर मनोविज्ञान की घुट्टी पिलाई गई है। सभ्य मनुष्य के मन पर नैतिकता का बोझ इतना अधिक होता है कि उसका रेचन करना जरूरी है, अन्यथा वह पागल हो जाएगा। इसे ध्यान में रखते हुए होली के नाम पर रेचन की सहूलियत दी गई है। इसकी जो कहानी है, उसकी भी कई गहरी परतें हैं।

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हिरण्यकश्यप और प्रह्लाद कभी हुए या नहीं, इससे खास प्रयोजन नहीं है। लेकिन पुराण में जो आस्तिक और नास्तिक का संघर्ष दिखाया है, वह रोज होता है, प्रतिपल होता है। होली की कहानी का प्रतीक देखें, तो हिरण्यकश्यप पिता है। पिता बीज है, पुत्र उसी का अंकुर है। हिरण्यकश्यप जैसे दुष्टात्मा को भी पता नहीं कि मेरे घर भक्त पैदा होगा, मेरे प्राणों से आस्तिकता जन्मेगी। ओशो ने इस कहानी में छिपे हुए प्रतीक को सुंदरता से खोला है: हर बाप बेटे से लड़ता है। हर बेटा बाप के खिलाफ बगावत करता है, इसीलिए हर ‘आज’ बीते ‘कल’ के खिलाफ बगावत है। वर्तमान अतीत से छुटकारे की चेष्टा करता है। अतीत पिता है, वर्तमान पुत्र है।

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हिरण्यकश्यप मनुष्य के बाहर नहीं है, न ही प्रहलाद। ये दोनों प्रत्येक व्यक्ति के भीतर घटने वाली दो घटनाएं हैं। जब तक मन में संदेह है, हिरण्यकश्यप मौजूद है। जहां संदेह के राजपथ हैं, वहां भीड़ साथ है। जहां श्रद्धा की पगडंडियां हैं, वहां तुम एकदम अकेले हो जाते हो, एकाकी। संदेह की क्षमता सिर्फ विध्वंस की है, सृजन की नहीं। संदेह मिटा सकता है, बना नहीं सकता। लेकिन श्रद्धा बनाती है, मिटा नहीं सकती।