बात शुरू करते हैं परिषदीय विद्यालयों के शिक्षकों की। इनके सिर पर जिम्मेदारियों का पहाड़ रख दिया गया है। ऐसी स्थिति में यह विद्यालय में कैसे बच्चों को पढ़ायें। शिक्षकों से दूसरे कार्य कराने से छात्रों की पढ़ाई का लगातार नुकसान हो रहा है।
वैसे भी प्रा. विद्यालयों व पूर्व माध्यमिक विद्यालयों में शिक्षकों की बेहद कमी है जो शिक्षक है उन पर भी अन्य कार्यो का बोझ लदा है। ऐसी हालत में सरकार का सर्व शिक्षा अभियान कितना सफल होगा। यह सोचने की बात है। भविष्य के नागरिक तैयार करने की जिम्मेदारी जिस शिक्षक समुदाय पर है उसे शिक्षा कार्य से इतर काम भी करने पड़ते हैं। वह जनगणना कराता है। स्कूल की मरम्मत कराता है। शिक्षक स्कूल खाते तैयार करता है, जोनल दफ्तरों में क्लर्की करता है। मिड डे मील बंटबाता है।
इतना ही नहीं मतदाता सूची का पुनरीक्षण, चुनाव डयूटी, पोलियो अभियान में भागीदारी आदि कार्यो में भी शिक्षकों को लगाया जाता है। कभी-कभी कई कार्यो में शिक्षक की अक्षमता उसके निलंबन का कारण भी बनती है। अब बेहद व्यस्त मास्टर साहब के पढ़ाई के दिनों का हिसाब करें तो साल में 52 रविवार और 42 विशेष दिवस अवकाश होते है।
सर्दी गर्मी की छुट्टियों के अलावा शिक्षण से इतर कार्यो में भी पढ़ाई के दिन खर्च होते हैं। विद्यालयों में पढ़ाई की इस हालत के चलते ही अभिभावकों का प्रा.वि. व पूर्व मा. विद्यालयों से विश्वास टूट चुका है। इन विद्यालयों में शिक्षा को ग्रहण लगा है। विद्यालय में बच्चे वजीफा व मिड डे मील के भोजन तक ही सीमित है।
जबकि सरकार सर्व शिक्षा अभियान को लेकर धन की वर्षा कर रही है। बुद्धिजीवियों की मांग है कि शिक्षक समुदाय को शिक्षण कार्य के अलावा अन्य कार्यो में न लगाया जाये। जिससे परिषदीय विद्यालयों में शिक्षा का स्तर बढ़ सके।